गुरुवार, 30 अगस्त 2012

कहीं भीतर से 


झर -झर  झरती बरखा बूँदें
कर गयीं सब हरा-भरा
नहाया-ताज़ा 
पर सवाल यह है
कि तब कहाँ थीं
जब मुंह उठाये हम कह रहे थे -
आ जा , आ जा

कितना कुछ सूख गया है
आहों में डूब गया है
कौन देगा उसका हिसाब
दो तो ज़रा जवाब ?

बादल फिर बरसने लगे
अब तो गरजने भी लगे
बिजली आँखें दिखाने लगी
कहीं भीतर से आवाज़ आने लगी-

कैसे बरसते बादल
पृथ्वी की आर्द्रता
हमारे लालच ने चूस डाली
आभारी हो प्रकृति की
जिसने अपना स्वभाव नहीं बदला
देर-सवेर आधी-पौनी प्यास बुझाई
क्षमा मांगो पृथ्वी से, आकाश से,
सभी तत्त्वों से
जीवन के रक्षण और पोषण में
इनका शोषण
टुकड़ों में आत्महत्या है

और देखा मैंने
बादलों के भीतर से झांकती
सूर्यकिरण ने
आकाश में इन्द्रधनुषी पींग
सिरज दी है

मन उठा
और उस हिंडोले में जा बैठा।