रविवार, 2 सितंबर 2012

ऐसे भी कोई अचानक 


वो जो था एक शख्स
ज़िन्दगी से लबालब
कहाँ चला गया
सारी की सारी ख्वाहिशें लेकर
उसके बुज़ुर्ग माँ-बाप
आहें भर रहे हैं
बीवी आंसू बहा रही है
बेटा बाप की तस्वीर पर नज़र गड़ाये सोच रहा है-
क्यों चले गए पापा,
तुम्हें तो मेरी शादी देखने का इतना अरमान था?
बेटियां समझ नहीं पा रही हैं-
ऐसे अचानक भी कोई चला जाता है?

सोचती हूँ
न जाने कितने इंसान
इस आसमान के नीचे
और इस ज़मीन के ऊपर
कैसे-कैसे कितना-कितना जीकर चले गए
न इस फलक पर कुछ असर हुआ न ज़मीन पर
वही दिन-रात,
वही मौसमों का आना-जाना
वही धूप-छाँव
वही बारिश,
वही पेड़-पौधे

फ़क़त कुछ बरसों ही की तो बात होती है
आप आते हैं और चले जाते हैं
कुछ करीबी लोग थोड़े या ज्यादा दिन
दुखी होते हैं
फिर वो भी चल देते हैं
अपनी ज़िन्दगी के सफ़र में ज़िन्दगी से लबालब
या फिर ज़िन्दगी के पार

ये बहुत पुरानी दुनिया
मुसलसल नयी होती जाती है
वो जो शख्स चले जाते हैं अपनी ख्वाहिशें लेकर
उनकी जगह नए लोग ले लेते हैं
वो भी होते हैं भरपूर जीने के,
बहुत जीने के ख्वाहिशमंद
और वो भी एक-एक कर
उसी राह के राही बन जाते हैं
जिस पर से कोई लौटकर नहीं आता

हम सब जानते हैं ये सारी बातें
पर समझते कहाँ हैं
जब तक कोई अपना
अचानक बीच से सरक न जाये
और तब भी दुनिया को सराय न मान
अपना घर ही माने रहते हैं
जब तक यहाँ से जाना ही न पड़ जाये

दुनिया का सबसे बड़ा अचरज
यही तो है
हर पल मौत के साये में जीने वाला इंसान
यों जीता है जैसे उसे कभी मरना ही नहीं है
और शायद यही ज़िन्दगी की जीत
और मौत की हार है।