सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

मेरा दिल नहीं लगता 


अंदाज़न हर आधे घंटे बाद वे कहती हैं -
मेरा दिल नहीं लगता।
मैं अपराधी-सी उठकर
उनके पास जा बैठती हूँ।
थोड़ी देर उनके साथ हँसने-बोलने के बाद
हल्के मन से
अपनी लिखने की मेज़ पर लौट आती हूँ।
वहाँ पन्नों पर टंके प्रतीक्षारत पात्र
मेरी ओर उन्मुख होने को ही होते हैं
कि उनका वही स्वर गूँजता है-
मेरा दिल नहीं लगता ... रब्बा मैं की कराँ?
मैं पात्रों को वहीं छोड़
अनूप जलोटा के गाए भजन चला देती हूँ।
दस मिनट बाद वे खीझकर कहती हैं-
बंद करो इस शोर को।

कभी फल से, कभी दवाई से,
कभी रोटी से, कभी चावल से,
कभी गीता से, कभी रामायण से,
कभी सीरियल से, कभी फिल्म से-
उन्हें बहलाती हूँ
पर कहाँ भूलती हैं वे यह कहना-
मेरा दिल नहीं लगता।

क्या करूँ मैं
इस अस्सी वर्षीया रोगग्रस्त काया को
तीस वर्षीया युवा गृहणी में कैसे बदल दूँ
जिसका पति सवेरे नौ बजे
अपने फलते-फैलते बिजनेस को
सँभालने चला जाता था
और रात आठ बजे से पहले नहीं लौटता था।
वह अपने स्कूल जाने वाले बच्चों
और घर पर एकछत्र शासन करती थी।
आज वह उसका हमउम्र हमसफ़र
थके शरीर के साथ
दिन भर घर में अखबार पढ़ता
और टीवी देखता है,
घर पर उसका एकछत्र शासन अब संभव नहीं है।
जिस प्रजा पर उसकी हुकूमत चलती थी
वह भी अब यहाँ कहाँ है
वे सब अपने-अपने घरों के राजा-रानी हैं।
कैसे बुलाऊँ उन्हें उनके बचपन के साथ
अब तो वे आते हैं अपने तेवरों के साथ।
उनकी आवभगत में थकती हैं
और उनके जाते ही
उन्हें फिर पुकारने लगती हैं।

स्मृतियों के ढेर में से
अपमान और अवज्ञा के प्रसंग
चुन-चुनकर उठाती हैं
और तड़पकर कह उठती हैं-
मेरा दिल नहीं लगता।

चाहती हूँ उन्हें बाँहों में भर
उनका सिर सहलाकर कहूँ-
मम्मी ...मेरी बच्ची ...
कुछ मीठी यादें फिर से जीयो ...
वर्तमान में जो पल सुखद हों उन्हें सहेज लो ...
कड़वा-कठोर सब अब भुला दो ...
खूब हँसो ...और हँसाओ।



रविवार, 2 सितंबर 2012

ऐसे भी कोई अचानक 


वो जो था एक शख्स
ज़िन्दगी से लबालब
कहाँ चला गया
सारी की सारी ख्वाहिशें लेकर
उसके बुज़ुर्ग माँ-बाप
आहें भर रहे हैं
बीवी आंसू बहा रही है
बेटा बाप की तस्वीर पर नज़र गड़ाये सोच रहा है-
क्यों चले गए पापा,
तुम्हें तो मेरी शादी देखने का इतना अरमान था?
बेटियां समझ नहीं पा रही हैं-
ऐसे अचानक भी कोई चला जाता है?

सोचती हूँ
न जाने कितने इंसान
इस आसमान के नीचे
और इस ज़मीन के ऊपर
कैसे-कैसे कितना-कितना जीकर चले गए
न इस फलक पर कुछ असर हुआ न ज़मीन पर
वही दिन-रात,
वही मौसमों का आना-जाना
वही धूप-छाँव
वही बारिश,
वही पेड़-पौधे

फ़क़त कुछ बरसों ही की तो बात होती है
आप आते हैं और चले जाते हैं
कुछ करीबी लोग थोड़े या ज्यादा दिन
दुखी होते हैं
फिर वो भी चल देते हैं
अपनी ज़िन्दगी के सफ़र में ज़िन्दगी से लबालब
या फिर ज़िन्दगी के पार

ये बहुत पुरानी दुनिया
मुसलसल नयी होती जाती है
वो जो शख्स चले जाते हैं अपनी ख्वाहिशें लेकर
उनकी जगह नए लोग ले लेते हैं
वो भी होते हैं भरपूर जीने के,
बहुत जीने के ख्वाहिशमंद
और वो भी एक-एक कर
उसी राह के राही बन जाते हैं
जिस पर से कोई लौटकर नहीं आता

हम सब जानते हैं ये सारी बातें
पर समझते कहाँ हैं
जब तक कोई अपना
अचानक बीच से सरक न जाये
और तब भी दुनिया को सराय न मान
अपना घर ही माने रहते हैं
जब तक यहाँ से जाना ही न पड़ जाये

दुनिया का सबसे बड़ा अचरज
यही तो है
हर पल मौत के साये में जीने वाला इंसान
यों जीता है जैसे उसे कभी मरना ही नहीं है
और शायद यही ज़िन्दगी की जीत
और मौत की हार है।

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

कहीं भीतर से 


झर -झर  झरती बरखा बूँदें
कर गयीं सब हरा-भरा
नहाया-ताज़ा 
पर सवाल यह है
कि तब कहाँ थीं
जब मुंह उठाये हम कह रहे थे -
आ जा , आ जा

कितना कुछ सूख गया है
आहों में डूब गया है
कौन देगा उसका हिसाब
दो तो ज़रा जवाब ?

बादल फिर बरसने लगे
अब तो गरजने भी लगे
बिजली आँखें दिखाने लगी
कहीं भीतर से आवाज़ आने लगी-

कैसे बरसते बादल
पृथ्वी की आर्द्रता
हमारे लालच ने चूस डाली
आभारी हो प्रकृति की
जिसने अपना स्वभाव नहीं बदला
देर-सवेर आधी-पौनी प्यास बुझाई
क्षमा मांगो पृथ्वी से, आकाश से,
सभी तत्त्वों से
जीवन के रक्षण और पोषण में
इनका शोषण
टुकड़ों में आत्महत्या है

और देखा मैंने
बादलों के भीतर से झांकती
सूर्यकिरण ने
आकाश में इन्द्रधनुषी पींग
सिरज दी है

मन उठा
और उस हिंडोले में जा बैठा।