मेरा दिल नहीं लगता
अंदाज़न हर आधे घंटे बाद वे कहती हैं -
मेरा दिल नहीं लगता।
मैं अपराधी-सी उठकर
उनके पास जा बैठती हूँ।
थोड़ी देर उनके साथ हँसने-बोलने के बाद
हल्के मन से
अपनी लिखने की मेज़ पर लौट आती हूँ।
वहाँ पन्नों पर टंके प्रतीक्षारत पात्र
मेरी ओर उन्मुख होने को ही होते हैं
कि उनका वही स्वर गूँजता है-
मेरा दिल नहीं लगता ... रब्बा मैं की कराँ?
मैं पात्रों को वहीं छोड़
अनूप जलोटा के गाए भजन चला देती हूँ।
दस मिनट बाद वे खीझकर कहती हैं-
बंद करो इस शोर को।
कभी फल से, कभी दवाई से,
कभी रोटी से, कभी चावल से,
कभी गीता से, कभी रामायण से,
कभी सीरियल से, कभी फिल्म से-
उन्हें बहलाती हूँ
पर कहाँ भूलती हैं वे यह कहना-
मेरा दिल नहीं लगता।
क्या करूँ मैं
इस अस्सी वर्षीया रोगग्रस्त काया को
तीस वर्षीया युवा गृहणी में कैसे बदल दूँ
जिसका पति सवेरे नौ बजे
अपने फलते-फैलते बिजनेस को
सँभालने चला जाता था
और रात आठ बजे से पहले नहीं लौटता था।
वह अपने स्कूल जाने वाले बच्चों
और घर पर एकछत्र शासन करती थी।
आज वह उसका हमउम्र हमसफ़र
थके शरीर के साथ
दिन भर घर में अखबार पढ़ता
और टीवी देखता है,
घर पर उसका एकछत्र शासन अब संभव नहीं है।
जिस प्रजा पर उसकी हुकूमत चलती थी
वह भी अब यहाँ कहाँ है
वे सब अपने-अपने घरों के राजा-रानी हैं।
कैसे बुलाऊँ उन्हें उनके बचपन के साथ
अब तो वे आते हैं अपने तेवरों के साथ।
उनकी आवभगत में थकती हैं
और उनके जाते ही
उन्हें फिर पुकारने लगती हैं।
स्मृतियों के ढेर में से
अपमान और अवज्ञा के प्रसंग
चुन-चुनकर उठाती हैं
और तड़पकर कह उठती हैं-
मेरा दिल नहीं लगता।
चाहती हूँ उन्हें बाँहों में भर
उनका सिर सहलाकर कहूँ-
मम्मी ...मेरी बच्ची ...
कुछ मीठी यादें फिर से जीयो ...
वर्तमान में जो पल सुखद हों उन्हें सहेज लो ...
कड़वा-कठोर सब अब भुला दो ...
खूब हँसो ...और हँसाओ।
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