गुरुवार, 20 मार्च 2014

आओ कि

आओ कि थोड़े समय के लिए 
उतार दें अपने-अपने मुखौटे 
संजो लें साहस 
सच को स्वीकारने का 
तुम मुझे बताओ अपने दुःख-दर्द,
झूठ, कपट…
मैं तुम्हें दिखाऊँ
अपनी बदरंग देह और मन के घाव...

तुम्हारे हाथ अपने मुखौटे पर
कस क्यों रहे हैं?
और मैं भी तो
अपने मुखौटे को उतारने की बजाय
और संवार रही हूँ।

तुक्तक 

कितना है सब ऊलजलूल 
खिड़की पर बैठी है धूल 
बबली झाड़ना गयी है भूल 
उसे डांटना भी है फ़िज़ूल 

जीवन का यह कैसा दौर 
सोचो कुछ बोलो कुछ और 
सामने वाला भी है अपना 
कष्ट उसे न हो किसी तौर 


कैसे ?

आँगन में खिले गुलाब ने 
रंग और गंध की  भाषा में कहा -
कितना  सुन्दर है सब कुछ !
मुस्कुराओ और इसे और सुन्दर बनाओ!

कैसे मुस्कुराती?
घर-गृहस्थी से लेकर देह और मन में 
उगे नुकीले कांटे 
चैन से बैठने तक नहीं देते 
इन फूलों का क्या 
इन्हें तो समाज, परिवार, नैतिक-अनैतिक से 
कुछ लेना-देना है नहीं 
ये कांटे तो हमीं को झेलने हैं..... 

गुलाब का एक और फूल खिला 
गंध और रंग का उत्सव सघनतर हुआ 
मंद बयार में झूमती डाली पर 
फूल भी था, पत्ते भी और कांटे भी।