बुधवार, 3 सितंबर 2014

कुछ और सोच बैठी

कुछ और सोच बैठी 

वह लड़की जो बहुत बिंदास दिखती है 
पत्रकार की दुम बनी फिरती है
सच ही कहने की कसम खाए है 
लिख मारती है किसी के भी खिलाफ
तीखे से तीखा 
आजकल भीतर ही भीतर
कंपकंपाती रहती है 
सोते-सोते डरकर जग जाती  है 
नींद और जागने के बीच 
सुनाई देती हैं उसे दहलाने वाली आवाज़ें-
ऐ लड़की, औकात में रह 
सिर्फ शरीर है तू 
इंसान बनने की कोशिश मत कर 
इस गलतफहमी में मत रहना 
कि चार किताबें पढ़ लीं 
चार पैसे कमा लिए 
तो तू कुछ भी सोचने, 
कुछ भी करने को स्वतंत्र हो गई
तू वही सोचेगी जो हम चाहेंगे 
तू वही करेगी जो हम करवाएंगे
स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता के नाम पर 
तेरे वस्त्र तुझी से उतरवाएंगे 
सचमुच स्वतंत्र इंसान बनकर कुछ करने की कोशिश की 
तो बलात्कार होगा 
ठोस शारीरिक ही नहीं 
नयी तकनीक के दौर में 
तेरे शरीर के आभास के साथ 
हज़ारों बार होगा, बार-बार होगा। 
सुनती है वह नींद से जागने के बीच-
अरे आ जा रे साथ लेट जा 
भई वाह... मज़ा आ गया। 
वह देखती है जैसे दीवारों के पार भी  
और लोगों से डरने लगी है 
जैसे वे करते हों/ कर सकते हों उससे बलात्कार भी।



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