रविवार, 27 सितंबर 2009

क्षणिकाएं 


दिल उदास है
इसमें नहीं कुछ खास है
चलो यही सोचें -
कहाँ गया विश्वास है

अब मान भी लो
तुम्हारे बहुत अपने
देख रहे हैं कैसे- कैसे सपने
कैसी- कैसी माला लगे हैं जपने
तुम आँख बंद कर चादर तान भी लो

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

दिल की बात करना आजकल आउट ऑफ़ डेट हो गया है पर क्या भावनाओं से रीते हो सकते हैं हम कभी? सही है कि
इंसान भूखा हो तो उसे चाँद भी रोटी जैसा लगता है , यह भी सही है कि भावनाओं को तर्क की तुला पर तुलना जरूरी है तभी वे हमारे लिए, समाज के लिए और व्यापकतर सन्दर्भों में सार्थक या निरर्थक, त्याज्य या ग्राह्य हो पाती हैं लेकिन यह भी तो सही है कि भावनाओं के बिना तो एक जन दूसरे से ही नहीं जुड़ सकता, समाज और विश्व से जुड़ने की तो बात बहुत दूर रह जाती है।