दिल की बात करना आजकल आउट ऑफ़ डेट हो गया है पर क्या भावनाओं से रीते हो सकते हैं हम कभी? सही है कि
इंसान भूखा हो तो उसे चाँद भी रोटी जैसा लगता है , यह भी सही है कि भावनाओं को तर्क की तुला पर तुलना जरूरी है तभी वे हमारे लिए, समाज के लिए और व्यापकतर सन्दर्भों में सार्थक या निरर्थक, त्याज्य या ग्राह्य हो पाती हैं लेकिन यह भी तो सही है कि भावनाओं के बिना तो एक जन दूसरे से ही नहीं जुड़ सकता, समाज और विश्व से जुड़ने की तो बात बहुत दूर रह जाती है।